कविता : ना जाने क्यों? ना जाने मानव क्या कर रहा है? अपने जीवन का धरोहर यु गवा रहा है ऊँची - ऊँची इमारत बना रहा है और अपने जीवन का अनमोल उपहार मिट रहा है ना जाने मानव ऐसा क्यों कर रहा है? जिस धरती में जन्मा है उसे नर्क बनाते जा रहा है जिस मिट्टी से फसल उत्पादन किया जा रहा है मानव उसे ध्वँस बनाते जा रहा है प्रकृति को छोड़कर मानव कृत्रिम पदार्थ अपनाते जा रहा है ना जाने मानव ऐसा क्यों बनते जा रहा है? जल के कण - कण को यू ही बहाते जा रहा है जल बचाओ जीवन बचाओ यह नारा मिटाते जा रहा है इंसानियत के फर्ज को भूलते जा रहा है अपने जीवन के प्राकृतिक उपहार मिटाते जा रहा है ना जाने मानव इतना क्यों कुरूप बनते जा रहा है? धन्यवाद काजल साह - स्वरचित।